
समय का पहिया कहीं रुक सा गया है, जहाँ कल थी आज भी वहीँ खड़ी हूँ।
जिस वेश में, जिन कपड़ों में,जैसी भावनाओं में लदी फदी ,
कल तक सिमटी थी मैं, आज तक कहाँ हूँ निकली?
सोचती हूँ :
"हो जाय न पथ में रात कहीं,
मंज़िल भी तो है दूर नहीं -
यह सोच थका दिन का पंथी भी जल्दी-जल्दी चलता है!
दिन जल्दी-जल्दी ढलता है!"
मैं क्यों रुकी हूँ?
किसके लिए?
1 comment:
hahahhahahahahaha!!!!
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