धुंआ भी अगरबत्ती के संगत में अपने स्वभाविक कड़ुवेपन को त्याग कर सुगन्धित हो उठता है. काश मैं भी अगरबत्ती की तरह जल सकती और आसपास के इतने ज़हरीले धुँए को सुवासित कर पाती. लेकिन इतनी बारूद ही कहाँ भरी है उपरवाले ने, कभी अगरबत्ती की डंडी गीली हो जाती है तो कभी माचिस ही नहीं चलती. कुछ चलता और दौड़ता है तो वो है वक़्त. बेतहाशा बेपरवाह बस दौड़े ही जा रहा है. अब तो बस उसी पर भरोसा है की वो बीत जाए और अपने साथ ज़हरीले धुंए को लील जाए!
No comments:
Post a Comment