Friday, January 18, 2008

रहा नही जाता मुझ से ,

लो मैं तो चली।

बाँध लो मुझ पर कितनी ही बांधें,

चाहे काट डालो वृक्ष जो हैं मेरे सखा और रखवाले।

सूख जाऊँ मैं मध्य रास्ते,

या रहो तुम सारे पाषाणो को घिसते ।

रोक नही सकती मुझे कोई बंदिश ।

धूप से कड़कड़ाती धरती हो , या हो सूखे की तपिश ,

सब कुछ मटियामेट करने की है मुझमे ये kshmtaa


कर ले कोई कुछ भी , मिटा नही सकता मेरी सरसता ।


किसी के लिए मुक्ति हूँ तो किसी के लिए जीवन दान हूँ ।


राहत हूँ किसी कि तो ,किसी का प्राण हूँ।


हर देश कि सीमाएं मिटा दे, ऐसी जन संचार हूँ ।


रूकती नही कभी मेरी गति,


रहती हूँ मैं सदा चलती रहती।


पत्थरों , पहाडों, और गुफाओं से मैं निकलती, सागर मे मैं हूँ मिलती।


मत रोको मुझे जाने दो।


नही चलाओ अपनी मनमानी , रास्ते नित नए बनाने दो।


सूखी, सिमटी धरती को एक सूत्र मे पिरोने दो।


बीज लायी हूँ मैं नवीन आशाओं के,

रोको मत , मुझे बोने दो.

1 comment:

Shivangi Shaily said...

sorry could'nt give title to the abovementioned poem. aur hindi nahi likhi jaa rahi thi. plz suggest some titles. one could be,'Nirjharaa hoon main'.