ओ अभ्यागत ... पाहुन मेरे ...
आगमन से तुम्हारे , फैला है उजास का नवीन सवेरा .
सुनो... उषा की तुमुल दुदुंभी और निर्मल बयार का हठ नवेला ,
उन्नत चोटी की शिखा , सहस्त्र रश्मियाँ जो सुशोभित कर रही हैं अपने बाहू-पाश बढ़ा,
जैसे सदियों से अपनी छांव में अपने अंतरतम का सारा स्नेह निचोड , हो अडिग हिमालय खडा .
हर पाहुन को जैसे कह रहा ,
आभास करने के लिए है ये अनुभूति , जिसमे हो सुशोभित आदर की ये उन्नत परम्परा ...
सोचने की बात है , जननी की आँचल से क्या कोई लाल अनिभिज्ञ है कभी रहा?
इसीलिए तो कहते है यहाँ सभी ...
अतिथि देवो भवः
No comments:
Post a Comment