Tuesday, April 21, 2009

सवेरा होने तो दो!




गुत्थी उलझी हुयी है....... एक में दो, दो में एक... एक दूजे में एकसार,
मन झंझावत में फंसा हुआ है, मामलें हैं एक हज़ार,
बातें सुलझती नही , रास्ते मिलते नही,
एक दो नही- बारम्बार
समस्या वही रहती है.... स्थिर , निराकार, निर्विकार !
तो क्या करें की वो दिख जाए...
काले मेघ के अंतरतम में छुपा सवेरा निकल आए?
तो आती है आवाज़ यहीं कहीं एक छोटे से कोने से ...
अपने ही साए से ,
एक ज्योत जला के तो देखो,
आंखों में बसे उस सपने को टिमटिमाते तो देखो.....
दिन निकल आएगा!
भोर हो ही जायेगा!

10 comments:

अनिल कान्त said...

सच ही तो लिखा है आपने ....आपकी लेखनी जुदा है

मेरी कलम - मेरी अभिव्यक्ति

नवनीत नीरव said...

Hum bhi usi bhor ke intajar mein baithe the ki aapne chirag thama diya.
Achchhi kavita hai.
Navnit Nirav

Manu Dev Gupta / Gilly said...

full of hopes...

Shivangi Shaily said...

shukriya! :)

Anonymous said...

दिन निकल आएगा, भोर हो जायेगी..
लेकिन उसका क्या जिसको उजाले से ही डर लगता है ...

Shivangi Shaily said...

जिसको उजाले से डर लगता है, एक दिन ऐसा आएगा की उसे अंधियारा नई रौशनी दिखायेगा ।
रास्ते और भी हैं , मंजिल तक पहुँचने के ज़रिये अनेक हैं।

परमजीत सिहँ बाली said...

मनोभावों को सुन्दर शब्द दिए है।बढिया है।

Shivangi Shaily said...

thank you :)

Aniket said...

Nice! Liked the 9th line.

Shivangi Shaily said...

What to say, Thankz !