Wednesday, March 17, 2010

आस्था


कश्मीर धरती पर स्वर्ग है, सुना था , देख भी लिया। कहने को तो मैं अपने पूरे परिवार के साथ वैष्णो देवी तीर्थ पर गयी थी लेकिन मन में भक्ति भावना से अधिक सबसे मिलने और इतने दिन साथ रहने का शौक ज्यादा था। इसलिए तो किसी से नहीं पूछा था जाने से पहले की वहां क्यों कैसे और क्या है। मन में कुछ छवियाँ जरुर थी जो किताबों और हिंदी फिल्मों से प्रभावित थीं, सुनी हुयी बातें भी थी जिससे हमें पता था की पहाड़ की सीधी चढ़ाई में कैसे रहते हैं लोग। लेकिन खुद किसी बात को एहसास करने में जो मज़ा है वो और कहाँ!कश्मीर को प्रकृति ने सचमुच अपने हाथों से सजाया है। ऊंचे ऊँचे चिनार, यूक्लीप्ट्स, देवदार के दरख़्त, उनको अपने गोद में बखूबी सहारा देते हुए सफ़ेद शक्तिशाली हिमालय की चट्टानें। फूलों का तो जैसे ये असली जन्मस्थान हो। उन्हें खिलने के लिए किसी बात की जरूरत नहीं है। कहीं कहीं तो सीधी चट्टान पूरी तरह से पीले-गुलाबी फूलों से ढके दिखे।

सुबह सुबह सूर्योदय के समय पूरा आकाश लाल रौशनी में बादलों और कुहासे को छुपा लेता है। ऐसा लगता है की मानो भगवान ने लाल रंग में सब कुछ रंग दिया हो बिना किसी पक्षपात के। धीरे धीरे अलसाये से पक्षी कहीं कहीं से निकल के उड़ान भरने की तयारी करने लगते हैं। ऐसा नहीं है की देश के किसी और कोने में ऐसा नहीं होता हो, लेकिन सब कुछ एक साथ और इतनी ज्यादा खूबसूरती में सराबोर मिलना मुश्किल है।

लोग भी अच्छे हैं। ज्यादा गहराई से जानने का मौका तो नहीं मिला लेकिन उन छोटी छोटी लड़कियों के सुंदर चेहरे पर स्कूल जाते समय खिलखिलाती मुस्कान देख के बदलाव की लहर आती दिखी।

वैष्णो देवी की गुफा हिमालय के उस शिखर पर स्थित है जहाँ तक पहुचने के लिए ५ रास्ते हैं। पैदल, पालकी पर, पिठ्ठू पर, घोड़े-खच्चर पर और हेलिकॉप्टर में।

पहले हम सब को हेलीकाप्टर से ही जाना था। लेकिन ख़राब मौसम के कारण सेवाएं रद्द कर दी गयी। इसलिए अपने उपर भरोसा करना ही उचित समझा।

पहले तो थोड़ी हिचकिचाहट थी क्यूंकि स्कूल के बाद खेल-कूद-व्यायाम जैसे छूट ही गया है। लेकिन फिर एक आशा भी थी की कुछ बुरा नहीं हो सकता। कुछ ऐसी ही उम्मीद उस दिन भी थी जब तबियत ख़राब होने के बावजूद हृषिकेश में मैंने गंगा नदी में राफ्टिंग की थी और चाँद की रौशनी में पहाड़ के घुमावदार रास्तों पर चढ़ी थी। पता नहीं किस पर इतना विश्वास था। शायद इसी उम्मीद को लोग 'भगवान्' या 'भक्ति' कहते हैं।

बहरहाल चढ़ाई पर शुरुआत में काफी सारी दिक्कतें हुयीं। दम फूलने लगा, सर इतना दर्द करने लगा की की ऐसा लगा की फट ही जायेगा। कुछ दूर चलने पर पाँव और पेट में भी दर्द शुरू हो गया। हर २ मिनट में बैठने की नौबत आ रही थी। और थोड़ी ऊँचाई के बाद हथेली फूलने लगी और सख्त होने लगी। शायद अव्क्सीजन की कमी के कारण ऐसा हो रहा था।

फिर धीरे धीरे पाँव खुद ही उठने लगे। सर में लगा की कुछ पिघल रहा हो। मैंने सचमुच महसूस किया की दर्द भी मेरे साथ साथ सफ़र कर रहा हो। थोड़ी देर में सर दर्द होना बंद हो गया। शायद जमे हुए साइनस को ऐसे ही पिघल के निकलना था। उपर पहुच के इतनी ख़ुशी हुयी जितनी आज तक कभी नहीं हुयी हो। मन में कई सारी प्राथनाएं थी। सिर्फ अपने लिए ही नहीं बल्कि अपने कुछ अच्छे दोस्तों-हितैषियों की तरफ से भी। लेकिन वहां तक पहुचते हुए सब भूल गयी। अन्दर उन मूरत को बस निहारते रह गयी, निर्विकार और शून्य भाव से। और कुछ भी नहीं सूझा। फिर लाइन में खड़े लोगों ने आगे धक्का दे के बाहर कर दिया।

बाहर निकलने पर सब याद आ गया। लेकिन फिर उन सारी अभिलाषाओं पर हसीं भी आ गयी। कैसी कैसी टुच्ची उलझनों में फंसी थी अब तक। सचमें कोई शक्ति है जो हम से परे, हम से उपर है। जिसपर भरोसा करना जरुरी है.

इसलिए मैंने १ निश्चय किया है, अपने इस विश्वास को फैलाने का। लोग दुखी हैं क्यूंकि उनके पास इसी १ विश्वास की कमी है। कोशिश करुँगी की अपने हिस्से में से कुछ बाँट सकूँ।

किरणों को बांटने से रौशनी कम थोड़े ही होती है!

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